मेरी और किशन की वार्ता
आज मेरी बात मेरे घनीस्ट मित्र मनीष से हुई मनीष ने मेरा हाल चाल पूछा जिसके उत्तर में मैने कहा अपना तो सब ठिक है।
फिर हमारी बातचीत हमेशा कि तरह फिलोसिफी की ओर झुकने लगी हमने कहा चलो एक सप्ताह की छुट्टी लेते है और योग ध्यान आदि किया जायेगा जिसपर मनीष मेरी बात को काटते हुए कहा अरे ई सब में कुछ नाही धईल बा ई सब तो हमें नौटंकी लगता है मनीष ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा की पहले किन्ही लोगों ने योग ध्यान किया फिर जब कुछ नही मिला तो इसी को अपना धंधा बना लिए ।
वास्तव मे मनीष की बातो से मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था की वह मन से बड़ा उत्साह हीन और निराश हो गया हो।
उसके हर बात में नकारात्मकता झलक रही थीं
जैसे छोड़ा नौकरी सौकरी, योग सोग में भी कुछ नहीं रखा बा, हमारी बातचीत काफी नीरस होती जा रहीं थीं।
फिर उसने बड़ा ही प्रत्यक्ष और स्पस्ट बात कही "प्रकृति हर किसी के साथ समान व्यवहार करती है, प्रकृति कभी अपने नियम नहीं तोड़ती , प्रकृति के समक्ष चाहे निर्जीव हो चाहे सजीव हो प्रकृति उनके भेद नहीं करती हैं, प्रकृति के अन्दर कोई भाव या मनोविकार नहीं होता है उदाहरण स्वरुप दया, क्रोध लोभ ईश्या आदि"
जिसे मैं बडा ही स्पष्ट समझ पा रहा था यह मेरे तर्क की कसौटी पर बढ़ा ही खरा उतर रहा है ।
उसने कहा मैं अक्सर देखता हूं कितनी चिटियां पैरो के नीचे आकर दब जाती है । फिर घायल होकर तड़फड़ाती है और अंत में मृत्यु को प्राप्त हो जाती है । मनीष के कहने का तात्पर्य था यह प्रकृति किसी के साथ भेदभाव नहीं करती सबके साथ समान व्यवहार करती है अर्थात चाहे अब उसके सामने कोई सजीव हो या निर्जिव।
जिसपर मैंने अपनी सहमति जताई और कहा प्रकृति चिटी को अपनी जान बचाता देखकर दया नही आती की चलो इसे छोड़ देते है प्राकृति की सीमा अर्थात हद में आनी वाली हर चीज अपनी प्राकृति के अनुसार प्रकृति से प्रभावित होती है।
मैने मनीष से कहा की तुमने यह बढ़ी सच्ची बात कही की प्रकृति जीव और निर्जिव के भेद को देखकर यह नहीं सोचती की इसे नष्ट करू या न करूं। प्रकृति नियम पर चलती है ।
और फिर मैंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा की प्रकृति के इस पक्के नियम के पिछे और प्रकृति के किसी भाग अब चाहे वो सजीव हो या निर्जिव हो के बदलते रुप (यानी किसी जीव के शरीर का ' आकार' ' रूप' बदलना ' सड़ना' वही किसी निर्जिव वस्तु का भी ' आकार' ' रूप' बदलना ' सड़ना' ' गलना' इत्यादि ) के पिछे जो कारण है वह यह है कि प्रकृति के हद यानि सीमा में जितनी चीजे आती वो सीमित है इसी बात को यदि सरल भाषा मे कही जाय तो यह होगी की प्रकृति के पास जितने भी संसाधन है वो निश्चित है ।
प्रकृति के अन्दर जितनी भी संभावनाएं है वो इन्ही संसाधनों को तोड़ मरोड़ कर बदलकर संभव वह पूर्ण होती है।
जीवन में इसके बहुत से उदाहरण देखने को मिलते है । जैसे - संसाधन निश्चित है
इसीलिए हमारे सगे संबंधियों की मृत्यु होती है
इसीलिए एक गढ्ढे में एकत्रित बारिश का पानी धीरे धीरे सुख जाता है।
इसीलिए इस सृष्टि में एक जीव से ही दूसरे जीव का जन्म होता है।
इसीलिए नए पौधे का बीज पूर्व के पेड़ से ही मिलता है।
इसीलिए एक पदार्थ के ही बदलते विभिन्न रूप देखने को मिलते है उदाहरणस्वरुप पानी के विभिन्न रुप बर्फ , वाष्प, जल इत्यादि।
इत्यादि।
जीवन में साधारणतया ऐसी अनेक घटनाओं के दर्शन लगभग हर किसी को देखने को मिलते है इसलिए हमारे मंथन की रोचकता बढ़ती ही जा रही थी।
मैने कहा प्रकृति कोई भी कार्य भाव या मनोविकार से प्राभावित हुए बिना करती है अर्थात प्रकृति किसी को क्रोधवस दंड या दयावस क्षमा नही करती ।
दूसरे शब्दों में प्रकृति अपने नियम की पक्की होती है यह कभी अपने नियम नहीं तोड़ती। किसी हत्यारे की तलवार किसी की गर्दन पर गिरती है तो प्रकृति के नियम के अनुसार गर्दन कटना चाहिए।
फिर इस विचार मंथन ने एक नया मोड़ लिया मैने कहा यदि कोई उस गर्दन और तलवार के मध्य प्रकृति के नियम को परिवर्तित कर सके तो वह ईश्वर होगा।
जिसपर मनीष की रुचि बढ़ती है और वह कहता है यदि ऐसा है तो ईश्वर है । हमारा यह गहन विचार मंथन स्पष्टता की ओर उन्मुख प्रतीत हो रहा था। मनीष बढ़े ही विश्वास और उत्साह के साथ ईश्वर के होने की बात स्पष्ट की उसने कहा यदि प्रकृति के नियम बदल सकने वाला ईश्वर है तो ईश्वर है । क्योंकि प्रकृति के बहुत से नियम हम अपने दैनिक जीवन में बदलते देखते है उदाहरणस्वरूप किसी रूम के टेंपरेचर में ए सी के माध्यम से बदलाव होना ।
और भी उदहारण हो सकते है जैसे किसी म्यूजियम में रखें जीवाश्म जिसे एक विशेष रासायनिक मिश्रण के घोल में सील करके रखा जाता है जिससे की उसके सड़ने वह नष्ट होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है इसी कारण जिसे कुछ घंटों या दिनो में सड़ या नष्ट हो जाना चाहिए वह वर्षो तक सुरक्षित रहता है ।
मनीष की कहीं गई बातें दैनिक जीवन में साधारणतया अक्सर देखने को मिल जाते है ।
फिर मुझे मनुष्य की उत्साह हीनता और नीरस भावो का अंत करदेने वाली एक विचार सूझी। हम सोचते है इस संसार में हर चीज नश्वर अर्थात हर किसी को एक समय नष्ट हो जाना है साथ ही हमारी भावनाओं का भी कोई महत्व नहीं है अर्थात हमारा भावुक होना व्यर्थ है।
पर ऐसा नही है इस नश्वर शरीर में जो हमारी भावनाएं जन्म लेती है वे व्यर्थ नहीं है हा यह सत्य है की प्रकृति अपने नियम की पक्की होती है किन्तु प्रकृति के नियम बदले गए है हजारों बार बदले गए है। बस यदि प्रकृति के नियम समझ लिए जाए तो उसमें संभव परिवर्तन किए जा सकते है। इसे समझने के लिए एक बार फिर इस उदहारण पर नजर डालते हैं। किसी म्यूजियम में रखें जीवाश्म जिसे एक विशेष रासायनिक मिश्रण के घोल में सील करके रखा जाता है जिससे की उसके सड़ने वह नष्ट होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है इसी कारण जिसे कुछ घंटों या दिनो में सड़ या नष्ट हो जाना चाहिए वह वर्षो तक सुरक्षित रहता है।
जब तक कोई व्यक्ति अपने शरीर तथा अपनी भावनाओ को नश्वर समझने के साथ यह मानता रहेगा की उसके हाथ में कुछ भी नही है वह जीवन पर्यंत दुखी रहेगा। जो व्यक्ति यह जानता है की मनोभवना से मनुष्य जो चाहे सो कर सकता है यदि मनुष्य प्रकृति के नियम को समझ ले तो वे इस नियम को तोड़ मरोड़ कर परिवर्तित कर सकता है।
मनुष्य की भावनाएं स्थूल प्रकृति से ज्यादा ताकतवर और अनश्वर है। मनुष्य की भावनाए जीवन को जीने,कर्म करने के लिए प्रेरित करती है। भावनाएं व्यर्थ नहीं इस भावना हीन प्रकृति में जीव का जन्म होना एक वरदान है और उसमे मानव का जन्म एक माहवरदान ।
मनीष जिसके विचार की शुरुआत निरश और उदासीन थे। वहीं हमारे मंथन के उत्साह पूर्ण मोड़ ने मनीष के उसके बिस्तर से लगाव को कम कर दिया । और वह अचानक खड़ा हो होकर अपनी बात कहने लगा।
मैने मनुष्य के मनोभावना के महत्व का सचित्र वर्णन करने के लिए एक किस्से की मदद ली यह किस्सा नेशनल टीवी पर एक नाटक था इस नाटक में दो बच्चें जिन्हे उनकी सौतेली मां उन्हें यह आशा धराकर घर छोड़ कर जाती है की वो जल्द ही वापस आयेगी । बच्चें अपनी मां के दुष्ट स्वभाव के बारे में कुछ नही जानते थे। सौतेली मां होने के कारण उसे इन बच्चों से कोई लगाव नहीं था वह इन्हें जान से मरना चाहती थी। वह घर छोड़कर चली जाती है बच्चो से कहती है यहां भगोने में रोटी है और ये रहा घड़े में पानी जब जो चाहे ले लेना और वह बाहर से कुंडी लगाकर चली जाती है। केवल दो ही दिनों में खाना पानी खत्म हो गया और वे मदद के लिए बाहर भी नही जा सकते थे वे बच्चे कुछ ही दिनों में कमजोर होने लगे केवल हवा और मां के वापस लौटने की उम्मीद उन्हें जिंदा रखे हुए थी।
छः महीने बाद इनकी सौतेली मां ने दरवाजे की कुण्डी इस आशय से खोलती है की अब तक तो ये नासपीटे मर चुके होंगे किन्तु वह उन बच्चों के सजीव शरीर मां से मिलने की उम्मीद से चमकते आंखें देख क्रोध से बोली की अभी तक तुम सब मरे नहीं बस इतना सुनते दोनों बच्चों के कमजोर वह जर्जर शरीर से प्राण छूट जाते है और वहीं दरवाजे पर निष्प्राण हो गिर जाते है।
Comments
Post a Comment